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दूल्हा मण्डी और दुल्हन की डोली !!

kabeera khada bazaar me
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जागरण जंक्शन ब्लॉग पे आना अब तो नियमित सगल हो गया है किन्तु अपने विचारों को प्रस्तुत करने का जैसे समय ही नहीं मिल पाता. सबसे बड़ी बात तो ये है कि विज्ञानं का विद्यार्थी होने से शब्दों को चुनना और और उन्हें चुनकर माला बनाना बड़ा दुष्कर मालूम पड़ता है.
खैर, पिछले दिनों शादियों के महासमर में मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला. कुछ नीलामियां नीचे लिख रहा हूँ –
१. लड़का एक मोटर कंपनी में अकाउंटेंट – डिमांड है ३-४ लाख की.
२. लड़का डिग्री कॉलेज में कॉन्ट्रैक्ट पे लेक्चरर – डिमांड है ४ लाख की.
३. भारतीय खाद्य विभाग में इंस्पेक्टर की शादी ६ लाख में हुई.
४. भारतीय न्याय सेवा में कार्यरत साहब की डिमांड थी १२ लाख वो भी कैश में…
५. बिहार में एक बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर कि डिमांड थी ८ लाख.

इन सभी में मैं शामिल हुआ और पता नहीं मुझे ही ये सब महसूस हो रहा था की कोई और भी था जिसने ये सब देखा हो. तड़क भड़क झालरों की रौशनी में लड़की वालों का दर्द मुझे ही क्यों दिखायी दे रहा था. कान फोड़ते डीजे के बीच में भी लड़की की चीखें मैं ही क्यों सुन रहा था.

जैसे जैसे ये समाज ज्यादा पढ़ा लिखा होता जा रहा है वैसे वैसे ये दहेज़ रुपी दानव अपना रूप बदल के समाज में नयी जगह ले रहा है. आश्चर्य होता है कि खुद १२ लाख दहेज़ लेकर कैसे ये न्याय करते होंगे जब इनके सामने कोई दहेज़ का मामला आता होगा. दहेज़ कि बलि पे न जाने कितनी मासूम ज़िंदगियाँ और कुर्बान होंगी. कही मोटरसाइकिल कि वजह से लड़की घर से निकल दी जाती है तो कही कार के लिए गला घोंट दिया जाता है. और ये सब समाज के एक बड़े पढ़े लिखे, अपने आपको बुद्धजीवी कहने वालों के घर में हो रहा है. क्या अध्यापक और क्या इंजीनियर सब के सब दूसरे कि मजबूरी का फायदा उठा रहे है और उसी दहेज़ को दिखा के समाज में अपनी शान बढ़ा रहे है. कोफ़्त हो रही है इन दोहरी मानसिकता के लोगों के बीच में जीने से. “दहेज़ एक अभिशाप है” निबंध पे जम के नंबर देने वाले भी लड़के कि शादी में मुह खोले में संकोच नहीं कर रहे है तो और किसी से क्या उम्मीद करें.

तथाकथित बुद्धजीवी अपने लड़कों को जिस तरह बेच रहे है वैसे तो सब्जी मण्डी में सब्जी भी नहीं बिकती है. समझ में नहीं आता कि इतने बुरे हालत का जिम्मेदार कौन है, किसे दोष दे और किसे सजा दें. न लाज न शर्म सब के सब हमाम में नंगे वाली हालत में खुश है.

बदलाव प्रकृति का नियम है और बदलाव से ही समाज को नया आयाम मिलता है. दहेज़ किसी भी रूप में किसी भी तरह से समाज के लिए सही नहीं हो सकता और इसके परिणाम सभी को दृष्टिगोचर हो रहे है लेकिन पता नहीं क्यूँ कुछ लोगों के लिए ये शान का विषय बन गया है जिसका अंत दहेज़ हत्या के रूप में होता है. इसे बदलना होगा…शुरुआत करनी होगी…. हमसे… आपसे… इस विषबेल कि जड़ों को काटना होगा दहेज़ का विरोध कर के.

दहेज़ का विरोध कीजिये… चाहे कितनी ही सामाजिक शान कम हो जाए. अपने अंतरात्मा से पूछ के देख लीजिये… ये एक ऐसा रोग है जो बहुत अंदर तक फ़ैल चुका है और इसे समाप्त करने में समय भी लगेगा… जरूरत है सच्चे मन से शुरुआत करने कि… अनुरोध उन समाज के अगुआ लोगों से जिनकी नक़ल बहुत लोग करते हैं कि आप दहेज़ के कुचक्र को समझें और बिना दहेज़ कि शादियां करें. समाज को एक सार्थक दिशा दें… अन्यथा कि स्थिति में बचाने के लिए कुछ नहीं बचेगा.

आभार,
अजय

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