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किसी भी देश के संसाधनों पर उसके नागरिकों का सम्पूर्ण अधिकार होता है. इस अधिकार को बनाएं रखने की जिम्मेदारी वहां की सरकार की होती है.
आश्चर्य होता है अपने देश के नीति निर्धारकों की दिमागी संतुलन पर की वे देश की अमूल्य सम्पदा को देशी विदेशी कंपनियों को औने पौने दामों में बेच रही है और उसका खामियाजा देश की जनता भुगत रही है.
ग्लोबल होने के चक्कर में इंडिया ने भारत को कहा ला दिया है की देश में फैले इफरात नमक और पानी को देश के ही लोगों को महंगे दामों में उपलब्ध कराया जा रहा है. एक देशी कम्पनी तो नमक इसी नाम पे बेचती है – “देश का नमक” और इस देश के नमक को आप लेने जाएँ तो पता चलेगा की यह कितना बहुमूल्य हो चूका है. देश की ही नहीं कुछ विदेशी कम्पनियां भी यही कर रही हैं. आखिर बिना किसी लागत के इतना अच्चा धंधा कहा मिलेगा. शायद इसी को कहते हैं – “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा”.
जिस नमक के लिए अहिंसा के “हिंसक” पुजारी महात्मा गाँधी ने दांडी मार्च किया था उसी नमक का आज ये हाल है.
पानी से ही ये जिंदगानी है क्यूंकि, शारीर का ७५% से ज्यादा हिस्सा पानी ही है. और यहाँ भी वही कहानी – जमीन से पानी निकालो, कुछ मशीनी क्रिया कर के बोतल में बंद करो और बेच दो १५ रुपिया लीटर. शर्म आती है ये देख कर की जिस देश में जनता रोज का २० रुपिया भी नहीं कम पाती उसे १ लीटर पानी का १५ रुपिया चुकाना पड़ता है. धन्य है देश. धन्य इसलिए की इतने पर भी हमारे राजनीतिज्ञ जनता को बख्श देने के मूड में नहीं दिखाई देते.
कितना अच्चा होता की हमारे देश को चलाने वाले इस बात को समझते और कम से कम शुन्य तकनिकी के व्यापार में विदेशी कंपनियों को निमंत्रण ना देते.
समुद्र के पानी से नमक बनाना क्या कोई बहार वाला हमे बतायेगा. क्या हम इतने गए गुजरे हो गए हैं की शुध पानी भी अपने देश के लोगों को नहीं पिला सकते.
कितना ही विचारित किया लेकिन कोई त्वरित समाधान नहीं मिल सका सिवाय इसके की हम देश के लोगों को ही आगे आना होगा. आईये आगे और बहिष्कार करें उन विदेशी कंपनियों का जो हमे नमक, पानी और आटा जैसी वस्तुए भी ऊँची कीमत पे बेच कर देश का पैसा बहार ले जा रही है.
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